'अभिव्यक्ति’ शिक्षकों की रचनात्मकता को आप सभी के सम्मुख प्रस्तुत करने का एक माध्यम है और हमें पूर्ण विश्वास है कि आप सभी पाठकों को यह प्रयास पसंद आएगा।

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दीपशिखा मित्तल 

अशोका यूनिवर्सल स्कूल, नाशिक, महाराष्ट्र


दोषी कौन 


बड़ी बेटी 19 बरस की थी और छोटी 14 बरस की। इतने समय के बाद पुत्र रत्न की प्राप्ति पर पूरा घर खुशी से फूला न समाता था। दावत का आयोजन किया गया था, बधाइयों का ताँता लगा था। ऐसा लगता था जैसे सब संकटों का हरण हो गया है और जीवन कि नैया पार लग गई है क्योंकि बेटियाँ तो अपने घर चली जाएँगी और बुढ़ापे का सहारा सिर्फ बेटा ही होगा। धीरे-धीरे समय बीतता गया एक के बाद एक दोनों बेटियों की शादी हो गई बड़ी बेटी की शादी के वक्त बेटे की उम्र सिर्फ 3 बरस की थी और छोटी बेटी के शादी के वक्त यही कोई 8 बरस का रहा होगा बेटियों को भी अब सचमुच लगता था कि हां माँ का कहना सही था एक बेटा होना ही चाहिए नहीं तो बुढ़ापे में उनकी देखभाल कौन करता। समय गुजरता गया बेटियां ससुराल में अपने बच्चों में व्यस्त हो गई साल भर में ही कभी माँ से मिलने आना होता और तभी भाई से मिल पाती।

छोटी बेटी की शादी को 20 बरस हो गए थे और मायके से बड़ा ही शुभ समाचार आया था। जिस भाई को अपनी शादी पर 8 बरस का छोड़ कर आई थी आज उसी का विवाह तय हो जाने का समाचार मिला ।सभी बहुत खुश थे शादी में जाने की तैयारी कर रहे थे। जैसा सोचा भी नहीं था उससे भी सुंदर दुल्हन आई थी सोचा था माँ बाबूजी को अब आराम मिलेगा और वह एक सुकून की जिंदगी जी सकेंगे लेकिन कुछ ही दिन गुजरे थे कि बहु रानी ने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए। आए दिन घर में कलेश होता माँ को बुरा भला कहा जाता और अपनी मर्जी से सब काम होते भाई को भी समझ में नहीं आता था किसकी सुने माँ की या अपनी पत्नी की धीरे-धीरे पापा तो बीमार रहने लगे और एक  दिन इस दुनिया से चल बसे।  

अब अकेले मां बची थी। दिन पर दिन झगड़े बढ़ते ही जा रहे थे लेकिन फिर भी माँ को यह तसल्ली थी कि घर में कम से कम बहू और बच्चे तो दिखाई देते हैं लेकिन बहू का यह हाल था कि सास की सेवा करना तो दूर उनको एक गिलास पानी के लिए भी न पूछती। बच्चों को भी उनके पास जाने की इजाजत नहीं थी। बच्चों से कहा गया था अम्मा से दूर ही रहा करो हाँ जब पैसे की जरूरत पड़ती तब जरूर सास की याद आती है तब दो घड़ी मीठा बोल कर कुछ पैसे ले लेती। माँ की तबीयत भी अब दिन पर दिन खराब रहने लगी थी चलने फिरने में भी तकलीफ होती थी लेकिन किसी तरह अपना काम करना ही पड़ता था क्योंकि बहू अपना खाना अलग बनाती,अपना दूध अलग लेती।

 रसोई एक ही थी लेकिन सास- बहू के दूध अलग-अलग आते थे। रसोई एक ही थी लेकिन दोनों का खाना अलग-अलग बनता। क्योंकि बहू सास को दो रोटी बनाकर देने के लिए तैयार नहीं थी। सास बेचारी सब कुछ सह कर भी खून का घूंट पीकर रह जाती सिर्फ यह सोच लेती कि कम से कम इन लोगों को आँखों  के सामने देख तो लेती हूँ । 

बात सिर्फ यहीं पर आकर रूकती तो भी ठीक था लेकिन बहू को तो यह भी बर्दाश्त नहीं था उसने ठान लिया था कि अपने पति को अपनी सास से अलग करके ही रहेगी।

और एक दिन वह सचमुच अपने पति के साथ दूसरे शहर में जाकर बस गई। सास बेचारी बीमार घर में अकेली समझ ही नहीं पा रही थी कि गलती किसकी है।  वह बेचारी अभी भी यही कहती की बहू के बहकावे में आकर बेटे ने ऐसा किया है। समय धीरे-धीरे निकल रहा है माँ की तबीयत दिन पर दिन खराब होती जा रही है कोई देखभाल करने वाला नहीं। माँ दर्द से कराहती है, रोती है। शरीर का कष्ट और अकेलापन उसकी जान ले रहे हैं। आज माँ हिम्मत करके अकेले ही डॉक्टर को दिखाने गई थी, पता चला गैंग्रीन है अगर सही समय पर इलाज न किया गया तो पैर कटवाना पड़ सकता है। लेकिन माँ को आज भी बस एक ही चिंता खाए जा रही है कि किसी तरह शहर में बेटे के लिए एक घर का इंतजाम कर सके। एक ऐसी छत का इंतजाम, जिसके लिए उन्हें किराया न देना पड़े। वह अपनी जमा पूँजी में से कुछ रुपए जमा कर रही है ताकि बहू बेटे के लिए उनका अपना फ्लैट दिलवा सके। उसका पैर नीला पड़ चुका है, मुश्किल से ही उठ पाती है। बेटा आज शहर में पत्नी के साथ नया फ्लैट ढूँढ रहा है। 

Nishi Dhal

निशि धल

बिल्लाबंग हाई इंटरनेशनल, वडोदरा, गुजरात 

 

मेरी कलम  भी तरसती है


मेरी कलम  भी तरसती है,

कविता लिखने को,

अनकहे शब्दों को अभिव्यक्त करने को ,

बहती नदियों की धाराओं को ,

प्राकृतिक सौंदर्य को ,

झूमती­बलखाती लताओं को , 

कबीर,सूर,तुलसी  और  जायसी को

रहस्यवादी  कलाकारों  को 

 

 दूध छलकाती माँ की ममता को

अग्नि परीक्षा देती सीता को 

यमराज से  लड़ती सावित्री को

बचपन के संरक्षण जीवन को 

माता-पिता की नेह­वात्सल्य को

 दादा­दादी की   लोरी कहानियों को

संयुक्त परिवार के  अपनेपन को

  

 भारतीय संस्कृति और सभ्यता को

 नैतिक  सीख, व्यवहारिक ज्ञान को

 अतिथि देवो भव: को

 साहित्य सम्राट को

 रानी लक्ष्मीबाई को

  

पर जब आंखे संसार की सच्चाई  को  देखती हैं

तब लिख नहीं पाती  हूँ…….

 

नारी की वेदना को 

देश पर मर मिटते बलिदानों को

एक लाचार बाप को

विधवा के सफेद वस्त्रों को

बहन की राखी को

रो रहे बचपन को

 

आतंकवादियों के मंसूबों को

आजाद घूमते अत्याचारियों  को

 

भ्रष्टाचार के दलदल को

 वृद्ध आश्रम में बहते अश्कों की धारों को

 बुढ़ापे की लाचारी को

 रोती बिलखती बचपन को

 बाला की हत्या को 

निर्भया की  लाचारी को

माँ  के निश्छल प्रेम को

पिता की बेबसी  को

बलात्कारियों के बढ़ते कदम को

 

तब अपने आप को रोक नहीं पाती  हूं 

लाख चाहने पर भी कुछ लिख नहीं पाती हूं …... 

  
Vijya Kumar

डॉ. विजय कुमार

अशोका यूनिवर्सल स्कूल, नाशिक, महाराष्ट्र

बबलू की बिल्ली


 बबलू की बिल्ली का नाम मिनि था।  स्कूल से घर आने के बाद वह अपनी बिल्ली के साथ खेला करता था ।  मम्मी और पापा ने उसे अनेक बार समझाया था कि स्कूल से घर आने के बाद वह खाना खा लेने के बाद सीधी पढ़ाई-लिखाई में लग जाए।  लेकिन मिनि के प्रति उसका लगाव कुछ इस प्रकार से बढ़ गया था कि वह उसके बिना एक पल भी नहीं रह सकता था।  छुट्टीवाले दिन तो मिनि के पीछे उसे खाने-पीने की सुध भी नहीं रहती थी।  उसके पापा बहुत बड़े डॉक्टर थे।  वे बबलू को भी एक बहुत बड़ा डॉक्टर बनाना चाहते थे।  बबलू का बिल्ली के प्रति इतना अधिक लगाव देखकल उन्हें गुस्सा आ जाता था।  उन्होंने भी बबलू को एक-दो बार डॉटा था।  लेकिन बात यह थी कि उनके डॉटते ही बबलू रोने लगता था और खाना-पीना छोड़ देता था।  इस वजह से वे उसे अधिक डॉट भी नहीं सकते थे। बबलू घर में अकेला था।  इसलिए मम्मी-पापा का उस पर बहुत अधिक स्नेह था।  लेकिन दोनों को चिंता भी होती थी कि बबलू पढ़ाई पर उतना ध्यान नहीं देता जितना कि देना चाहिए।  एक दिन बबलू स्कूल से घर आया तो उसे पता चला कि उसकी बिल्ली ने चार बच्चों को जन्म दिया है।  वह तुरंत बिल्ली औऱ उसके बच्चों को देखने गया।  मिनि अपने चारों बच्चों को दूध पिला रही थी।  बबलू को देखकर वह पूँछ हिलाने लगी।  मिनि के बच्चों को देखकर बबलू बहुत खुश हुआ औऱ एक-एक को गोद में उठा लिया।  अब तो बबलू को किसी की जरुरत ही नहीं थी।  वह दिन-रात उन्हीं में मगन हो गया।  इसका उसकी पढ़ाई पर बुरा असर हुआ औऱ उस बार के युनिट टेस्ट में उसे बहुत कम अंक मिले।  इस वजह से उसके माता-पिता नाराज हुए और उनकी चिंता भी बढ़ गई।  पिता ने तय किया कि वे किसी भी हालत में बबलू की पढ़ाई बरबाद नहीं होने देंगे।  कुछ दिन बीत गये। दोपहर का समय था।  बबलू अभी-अभी स्कूल से आया था।  ते ही माँ ने कहा कि वह मुँह-हाथ धो ले औऱ जल्दी से खाना खा लेकिन बबलू तो रोज की तरह आज भी सबसे पहले अपनी बिल्ली के पास गया।  मिनि बेचैन होकर इधर-उधर घूम रहीं थी और थोड़ी गुस्से में भी लग रही थी।  वह बार-बार म्यायूँ-म्यायूँ कर रही थी।  बिल्ली के बच्चों को न देखकर बबलू भी परेशान हो गया।  इधर-उधर देख लेने के बाद भी जब बिल्ली के बच्चे न दिखे तो वह उल्टे पाँव वापर अपनी माँ के पास आया और उनसे पूछने लगा।  मम्मी... “बिल्ली के सब बच्चे कहाँ है? एक भी बच्चा दिखाई नहीं दे रहा है।” मम्मी बोली ... “पापा ने बिल्ली के बच्चों को बेच दिया है।  अब वे बच्चे यहाँ नहीं आएँगे।  वे सब बिल्ली के बच्चों को लेकर कहीं दूसरी जगह चले गये हैं।” यह सुनकर बबलू ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।  माँ जानती थी कि बबलू रोएगा इसलिए वह उसे प्यार से समझाने लगी।  लेकिन बबलू के आँसू थमने का नाम न ले रहे थे।  माँ का समझाना बेकार गया।  शाम तक बबलू ने कुछ खाया-पीया नहीं।  रात में उसके पापा जब घर आये तो बबलू को पहले प्यार से समझाया लेकिन जब वो नहीं माना तो उसे डाँटले लगे।  बबलू बार-बार बिल्ली के बच्चों को वापर लाने के लिए कह रहा था।  यह सुनकर उसके पापा का क्रोध बढ़ गया और उन्होंने कसकर बबलू को दो थप्पड़ माल दिये।  और यह कहा कि अगर वह चुप नहीं हुआ तो वे मिनि को भी किसी और को दे देंगे।  मार खाकर बबलू को इतना दुख नहीं हुआ जितना कि पापा के मुँह से यह सुनकर कि वे मिनि को भी किसी और को दे देंगे।  वह और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा और दौड़ता हुआ मिनि के पास चला गया।  मिनि ने भी अपने बच्चों के खो जाने के दुख में सुबह से दूध तक नहीं पीया था। बबलू मिनि को गोद में लेकर रोने लगा।  यह दृश्य देखकर बबलू की माँ की आँखों में भी आँसू आ गये।  पिता को भी अपनी गलती समझ में आने लगी थी।  दोनों ने बबलू को फिर से समझाया लेकिन बबलू ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगा।  माता-पिता दोनों घर में चले गए।  बबलू मिनि को गोद में लिए हुए रोते-रोते वहीं सो गया।  सुबह को जब बबलू की नींद खुली तो उसकी गोद में मिनि नहीं थी। वह बहुत ही घबरा गया।  उसे लगा कि पापा ने मिनि को भी किसी को दे दिया।  लेकिन उसकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा जब उसने देखा कि कुछ ही दूरी पर मिनि अपने चारों बच्चों को दूध पिला रही है।  उसके बाद बबलू की नज़र अपने माता-पिता पर पड़ी।  वे सामने खड़े मुस्कुरा रहे थे।  बबलू उनके पास गया और पापा ने उसे गले से लगा लिया।  बबलू ने माता-पिता को बचन दिया कि वो अब से पढ़ाई पर अधिक ध्यान देगा और तब से बबलू अपने वचन का पालन भी करने लगा।  

Bina Mishra

बीना अजय मिश्रा

मनोविकास इंग्लिश मीडियम स्कूल, गोवा 

पुनः वही प्रश्न 


सृष्टि के अतीत का

घनघोर वह अज्ञात

विस्मित तुम्हें देखता है

मनु....

ताम्रवर्णी श्रद्धा के

स्नेहतप्त आमंत्रण को

पूर्व क्यों नहीं छुआ??

पश्चात हुए हर संधान

स्नेहिल समर्पण के

संभव नहीं थे श्रद्धा

दो-एक क्षण पहले

कि...

संसृति की अधिकाधिक कामना

शून्य में प्रबल होती है

पुनः वही शून्य

सृष्टि का वही भयावह अज्ञात

प्रश्न करता है राम

क्या तय था तुम्हारा आगमन,

उस अमांसल और अमानस-सी

कठोर गर्जना के उपरांत??

एक शांत- प्रशांत अथाह

संवेदना का महासागर लिए

निर्जन से चली पगडंडी

अपनी ही अनुगामिनी है

निरर्थकता और अनछुएपन में

कोसों का समीकरण

ज्ञात है उसे, भिज्ञ है

हर 'क्यों' का आरंभ 'कहीं' होता है

जो प्रश्नों और सहानुभूतियों के

ताने-बाने में घिरा

निर्लिप्त और शांत है

किंतु...

अपने अहम की प्रतिष्ठा में

प्रश्नित करता है मनु को

और कभी श्रद्धा को

राम को तो कभी 

गौतम की हठधर्मी को 

कि...

अहल्या के पाषाण रहने में

राम की मर्यादा का 

पोषण भी होता है

अहल्या का पाषाण

हर युग में उसे

नवजीवन देता है

नववेदना के महादान से

आश्वस्त बना देता है

कि....

व्यथा के स्वरों में समाहित

उसका रुदन सार्थक है

और....

गौतम के तथाकथित 'श्राप' से

राम के 'सामर्थ्य' तक

उसका 'मैं'

शेष है, शेष है, शेष है!!