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आषाढ़ का एक दिन

मोहन राकेश हिन्दी के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न नाट्य लेखक और उपन्यासकार हैं तथा ’नई कहानी’ आन्दोलन के प्रमुख साहित्यकार हैं जिन्होंने हिन्दी नाटक को आधुनिक रूप प्रदान किया।इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। एक शिक्षक के रूप में ज़िंदगी की शुरुआत करने के साथ ही उनका रुझान लघु कहानियों की ओर हुआ। एक वर्ष तक 'सारिका'  पत्रिका का सम्पादन किया लेकिन बाद में उन्होंने कई नाटक और उपन्यास लिखे।

हिन्दी नाटकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र और जयशंकर प्रसाद के बाद का दौर मोहन राकेश का दौर है जिसमें हिन्दी नाटक दोबारा रंगमंच से जुड़ा। मोहन राकेश ने हिन्दी नाटकों को जीवन के यथार्थ से जोड़ा। उनकी कहानियों, उपन्यासों और नाटकों की कथावस्तु शहरी मध्यवर्ग के जीवन पर आधारित है। कुछ कहानियों में भारत-विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है। इनकी रचनाएँ स्त्री-पुरुष संबंधों में बढ़ती भावुकता की जगह बौद्‌धिकता, व्यक्ति के अकेलेपन, तनाव व असुरक्षा के भाव के यथार्थ चित्र को प्रस्तुत करता है। वस्तुत: इसे साठोत्तरी “भारतीय महानगर के मध्यवर्गीय मानस के भीतरी और बाहरी संघर्षो का यथार्थपरक दस्तावेज कहा जा सकता है”।इनके द्‌वारा लिखित ’आषाढ़ का एक दिन’ नाटक सन्‌ 1958 में प्रकाशित हुआ। इसे हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। सन 1959 में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था।

इनकी भाषा पात्र और विषयवस्तु के अनुकूल और संप्रेषणीयता के गुण से युक्त है। भाषा नाटक की मूल संवेदना के अनुसार भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने वाली है। 

प्रमुख रचनाएँ – अंधेरे बंद कमरे, न आने वाला कल, अंतराल आदि। (उपन्यास)  इनसान के खंडहर, नए बादल, जानवर और जानवर, एक और जिन्दगी, फौलाद का आकाश आदि। (कहानी)आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे आदि। (नाटक)

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मोहन राकेश


किसी भी अपरिचित व्यक्ति से , चाहे उसकी भाषा, उसका मज़हब, उसका राजनीतिक विश्वास तुमसे कितना ही भिन्न हो, यदि मुस्कराकर मिला जाए तो जो तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाता है, वह कोरा मनुष्य होता है।

- मोहन राकेश 

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आषाढ़ का एक दिन




आषाढ़ का एक दिनमोहन राकेश रचित हिन्दी का प्रसिद्‌ध यथार्थवादी नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ सन्‌ 1958 में प्रकाशित हुआ। यह एक त्रिखंडीय नाटक है। इसे हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक भी कहा जाता है। 1959 में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1971 में निर्देशक मणि कौल ने इस पर आधारित एक फ़िल्म बनाई जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीत लिया। ‘आषाढ़ का एक दिन’ महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर आधारित है, जो 100 ई॰पू॰ से 500 ईसवी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ।


इस नाटक का शीर्षक कालिदास की कृति मेघदूतम् की शुरुआती पंक्तियों से लिया गया है क्योंकि आषाढ़ का महीना उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का आरंभिक महीना होता है, इसलिए शीर्षक का अर्थ "वर्षा ऋतु का एक दिन" भी लिया जा सकता है। 


मोहन राकेश ने लिखा कि "मेघदूत पढ़ते हुए मुझे लगा करता था कि वह कहानी निर्वासित यक्ष की उतनी नहीं है, जितनी स्वयं अपनी आत्मा से निर्वासित उस कवि की, जिसने अपनी ही एक अपराध-अनुभूति को इस परिकल्पना में ढाल दिया है।" मोहन राकेश ने कालिदास की इसी निहित अपराध-अनुभूति को "आषाढ़ का एक दिन" का आधार बनाया।


आषाढ़ का एक दिन : कथावस्तु

अंक - एक


प्रथम अंक के आरंभ में पर्दा उठते ही बादलों की गर्जन और बारिश का स्वर सुनाई देता है। मंच पर एक साधारण ग्रामीण घर प्रकोष्ठ दिखता है। दीवारें लकड़ी की हैं, परन्तु निचले भाग में चिकनी मिट्‌टी से पोती गई हैं। बीच-बीच में गेरू से स्वस्तिक-चिह्‌न बने हैं। सामने का द्‌वार अँधेरी ड्योढ़ी में खुलता है। बायीं तरफ का द्‌वार खुला है जो दूसरे प्रकोष्ठ (कमरा) में जाने के लिए है। उस प्रकोष्ठ में एक तख्त पड़ा है। किवाड़ों को मिट्‌टी से लीपा गया है। किवाड़ पर गेरू और हल्दी से कमल फूल एवं शंख के चित्र बने हैं। दायीं तरफ के झरोखे से बिजली चमकती हुई दिखाई पड़ती है। प्रकोष्ठ में एक तरफ चूल्हा है। बगल में मिट्‌टी और कांसे के बर्तन संभालकर रखे हुए हैं। वहाँ तीन-चार मिट्‌टी के कुंभ (घड़े) रखे हुए हैं जिनपर कालिख जमी हुई है।

झरोखे के पास एक लकड़ी का आसन है जिस पर बाघ-छाल बिछी हुई है। चूल्हे के पास दो चौकियाँ हैं। उनमें से एक चौकी पर बैठी अंबिका छाज से धान फटक रही है। तभी वर्षा में भीगकर आई मल्लिका का प्रवेश होता है। दोनों के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि मल्लिका अंबिका की पुत्री है। मल्लिका ने कालिदास के साथ आषाढ़ की पहली बरसात में भीगने का आनंद उठाया है इसलिए वह अपने इस सौभाग्य पर मुग्ध है। मल्लिका कालिदास से प्रेम करती है। वह कालिदास से भावनात्मक रूप से प्रेम करती है जो पवित्र, कोमल और अनश्वर है। मल्लिका के लिए बारिश का यह सौन्दर्य अस्पृश्य होते हुए भी मांसल है परंतु अंबिका को मल्लिका का यह आचरण अनुचित प्रतीत होता है। व्यक्तिगत स्तर पर भी और सामाजिक स्तर पर भी। वह कालिदास को नापसंद करती है क्योंकि वह भावनाओं में निमग्न रहने वाला एक अव्यावहारिक व्यक्ति है जिससे यह आशा करनी व्यर्थ है कि वह मल्लिका को किसी प्रकार का सांसारिक सुख दे पायेगा। सामाजिक स्तर पर वह उन दोनों से इसलिए नाराज़ है क्योंकि प्रेमी युगल का विवाह से पूर्व इस प्रकार घूमना-फिरना लोकापवाद का कारण हो सकता है।

उन दोनों के वाद-विवाद के बीच ही कालिदास भी आते हैं। उन्हें किसी राजपुरुष के बाण से घायल हरिण शावक के प्राण-रक्षा की चिंता है। राजपुरुष दंतुल भी अपने उस शिकार को खोजते हुए वहाँ पहुँच जाते हैं। कालिदास और दन्तुल में वाद-विवाद होता है। कालिदास हरिणशावक को लेकर चला जाता है। दन्तुल अपने राजपुरुष होने के अभिमान में चूर है परंतु जब उसे ज्ञात होता है कि जिस व्यकित से वह तर्क-वितर्क कर रहा था वह ‘ऋतुसंहार’ के प्रसिद्‌ध कवि कालिदास हैं तो उसका स्वर और भावभंगिमा तुरंत बदल जाती है। वह उनसे क्षमा माँगने को भी तैयार है क्योंकि सम्राट चंद्रगुप्त के आदेश पर आचार्य वररुचि उन्हीं को लेने तो वहाँ आए थे। इस सूचना से कि कालिदास को राजकीय सम्मान का अधिकारी समझा गया है मल्लिका प्रसन्न हो जाती है, परंतु अंबिका पर मानो इस सबका कोर्इ प्रभाव ही नहीं पड़ता। दोनों एक दूसरे को अपना दृषिटकोण समझाने का प्रयास करती हैं, तभी मातुल का आगमन होता है।

 मातुल कालिदास के संरक्षक हैं पर उनकी भाँति भावुक नहीं बल्कि अति व्यावहारिक हैं। वे राजकीय सम्मान के इस अवसर को किसी भी प्रकार खोना नहीं चाहते। कालिदास की उदासीनता से भी वे नाराज हैं। मातुल कालिदास को मोर्ख मानता है क्योंकि सम्मान ग्रहण करने से मना करने पर सम्राट क्रोधित भी हो सकते हैं। मातुल कालिदास को कुलद्रोही मानता है। अंबिका मातुल से कहती है कि वह उज्जयिनी जरूर जाएगा क्योंकि कालिदास लोकनीति में निपुण है। कालिदास जानता है कि सम्मान मिलने के बाद उसके प्रति उदासीनता प्रकट करने से व्यक्ति का महत्त्व और सम्मान ज्यादा बढ़ जाता है। निक्षेप कालिदास की मन:स्थिति को समझता है परंतु इस अवसर को खोने के पक्ष में वह भी नहीं है इसलिए वह मल्लिका से अनुरोध करता है कि वह कालिदास को समझाये। इसी अंक में विलोम का भी प्रवेश होता है। उसकी बातों से ज्ञात होता है कि वह मल्लिका से प्रेम करता है। वह यह भी जानता है कि मल्लिका कालिदास को चाहती है और उसके जीवन में विलोम का कोर्इ स्थान नहीं। वस्तुत: ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि उसका व्यक्तित्व कालिदास के व्यक्तित्व से नितान्त विपरीत है। कालिदास के इस सम्मान से वह थोड़ा दु:खी दिखार्इ देता है जिसकी अभिव्यकित उसके व्यंग्यपूर्ण कटाक्षों से होती है। उसके कारण कई हैं - एक उसके मन का ईर्ष्या-भाव है। कालिदास को वह अपने प्रतिद्वंद्वी की भाँति ग्रहण करता है और उसे लगता है कि इस प्रतिद्वंद्विता में कालिदास का स्थान उससे ऊपर हो गया है। दो,  वह कालिदास और मल्लिका के पारस्परिक स्नेह-भाव को भलीभाँति समझता है। वह जानता है कि कालिदास के चले जाने से मल्लिका दुखी हो जायेगी और मल्लिका का दु:ख उसे असहाय है। तीन,  उसे आशंका है कि उज्जयिनी का नागरिक वातावरण, राज्य सत्ता की सुख-सुविधाएँ, आमोद-प्रमोद में कालिदास जैसा व्यक्तित्व कहीं खो न जाए,  उसकी रचनाशीलता को कोर्इ क्षति न पहुँचे,  विलोम के मन में जो शंका है वही कालिदास के मन में भी है। उज्जयिनी जाने-न-जाने की दुविधा का कारण यही शंका है। परंतु मल्लिका के मन में इस प्रकार की कोई शंका नहीं। उसे कालिदास की प्रतिभा पर विश्वास है। यहाँ रोक कर वह उसे स्थानीय कवि नहीं बने रहने देना चाहती। उज्जयिनी जाकर उसके अनुभवों में विस्तार हो, राजकीय सुख-सुविधाओं के बीच अपने अभावों को भूल कर साहित्य-रचना में वह लीन हो जाए, उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैले भले ही इसके लिए उसे कालिदास का वियोग क्यों न सहना पड़े, इसी अभिलाषा से वह कालिदास को उज्जयिनी जाने के लिए मना लेती है।

शब्दार्थ

मेघ-गर्जन – बादलों की आवाज़

अनन्तर – पश्चात, बाद में

प्रकोष्ठ – कमरा

ड्योढ़ी – देहली

तल्प – तख्त, पलंग

कुशा – एक प्रकार की घास

उपत्यका – घाटी

बकुल – बगुला

धारासार – मूसलाधार

आक्रोश – गुस्सा

आर्द्र – नम, गीला

उष्णता – गर्मी

भर्त्सना – निन्दा, बुराई

शर्करा – शक्कर, चीनी

प्रयोजन – मतलब

अपवाद – बदनामी

विवेचन – विश्लेषण

आत्म-प्रवंचना – अपने आपको धोखा देना

वरण – चुनना

आस्तरण – बिस्तर

दूर्वा – दूब,घास

सामुद्रिक – ज्योतिष

पार्वत्य-भूमि – पहाड़ी क्षेत्र

क्रीत – खरीदा हुआ

पूर्वाग्रह – पहले से कोई धारणा बना लेना

प्रपितामह – परदादा

दौहित्र – नाती 

भागिनेय – भांजा

वंशावतंस – वंश का चिराग

अभिस्तुति – प्रार्थना

निष्णात – निपुण

अभ्यागत – मेहमान, अतिथि

अग्निकाष्ठ – मशाल

प्रान्तर – प्रदेश

उल्मुक – मशाल

ब्राह्‌म-मुहूर्त – सूर्योदय से ठीक पहले का समय

अनर्गलता – गैर ज़िम्मेदार बातें

रिक्तता – खालीपन

संवरण – नियंत्रण

उर्वरा – उपजाऊ

मोहन राकेश सन् 70
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अंक दो

  

दूसरा अंक कालिदास के जाने से कुछ वर्षों के बाद का है। प्रकोष्ठ (कमरा) वही है लेकिन स्थिति में काफी अंतर आ गया है। दीवार की लिपाई कई स्थानों से उखड़ रही है। गेरू से बने स्वस्तिक, शंख और कमल अब  फीके पड़ चुके हैं। चूल्हे के पास पहले से बहुत कम बरतन बचे हैं। कुम्भ (घड़ा) अब केवल दो ही बचे हैं और उन पर ऊपर तक काई जम चुकी है। रस्सी पर फटे-पुराने वस्त्र सूखने के लिए फैलाए गए हैं। अंबिका अस्वस्थ है। उसे दो वर्ष से ज्वर है। वह दवा भी ठीक से नहीं लेती है।  मल्लिका को आर्थिक अभावों की पूर्ति के लिए काम करना पड़ रहा है। मल्लिका और निक्षेप के वार्तालाप से यह स्पष्ट होता है कि वह आज भी कालिदास से उसी प्रकार जुड़ी है। राजधानी से आने जाने वाले व्यवसायियों के माध्यम से वह उनकी रचनाओं को मँगवाकर पढ़ती रही है। उसे यह संतोष भी है कि उसके स्नेह और आग्रह के कारण ही कालिदास राजधानी जाने के लिए तैयार हुए थे। अत: वह कालिदास की उपलबिध में कहीं स्वयं भी भागीदार हैं। निक्षेप से बातचीत से ही इस बात की भी सूचना दी गयी है कि कालिदास अब पहले वाले कालिदास नहीं रहे गये हैं। वहाँ के वातावरण के अनुरूप अब वे सुरा और सुंदरी में मग्न रहने लगे हैं, गुप्त साम्राज्य की विदुषी राजकुमारी (प्रियंगुमंजरी) से उन्होंने विवाह कर लिया है, अब काश्मीर का शासन भार भी वे सँभालने वाले हैं और इसी यात्रा के बीच वे अपने इस ग्राम प्रांतर में भी कुछ समय के लिये रुकेंगे, उनका नया नाम अब मातृगुप्त है, 'ऋतु संहार के बाद वे और भी अनेक काव्यों-नाटकों की रचना कर चुके हैं, सारा गाँव आज उनके स्वागत की तैयारी कर रहा है। तभी राजसी वेशभूषा में एक घुड़सवार के दर्शन निक्षेप को होते हैं। उसे विश्वास है कि वह राजपुरुष और कोर्इ नहीं बलिक स्वयं कालिदास ही हैं। यह सूचना मल्लिका को विचलित कर देती है। तभी रंगिणी-संगिणी का प्रवेश होता है। ये दोनों नागरिकाएँ कालिदास के परिवेश पर शोध करना चाहती हैं पंरतु उनका काम करने का ढंग अत्यंत हास्यास्पद और सतही है। वे मल्लिका से उस प्रदेश की वनस्पतियों, पशु-पक्षियों, दैनिक जीवन मे उपयोग में आने वाली वस्तुओं और विशिष्ट अभिव्यकितयों के विषय में प्रश्न करती हैं। परंतु कुछ भी असाधारण न दिखाई देने से निराश हो कर लौट जाती हैं। उनके जाते ही अनुस्वार और अनुनासिक नामक दो राज-कर्मचारी आते हैं। कालिदास की पत्नी और राजपुत्री प्रियंगुमंजरी के आगमन की तैयारी में वे मल्लिका के घर की व्यवस्था में कुछ ऐसा परिवर्तन करना चाहते हैं जो राजकुमारी के गौरव के अनुरूप हो और सुविधाजनक भी हो। परन्तु वास्तव में वे व्यवस्था-परिवर्तन का नाटक भर करते हैं और बिना कोई बदलाव किये वहाँ से चले जाते हैं। फिर मातुल के साथ प्रियगुमंजरी का आगमन होता है। वह जानती है कि मल्लिका कालिदास की प्रेयसी है और कालिदास के मन में उसके लिए अथाह स्नेह और सम्मान है। उसे मालूम है कि कालिदास की समस्त रचनाओं की प्रेरणा स्रोत मल्लिका और यह परिवेश ही है। अत: स्त्री-सुलभ जिज्ञासा और ईर्ष्या के फलस्वरूप वह इस प्रदेश में आने और मल्लिका  को देखने का लोभ संवरण नहीं  कर पाती है। उसे आश्चर्य होता है कि राजधानी से इतनी दूर होने पर भी मल्लिका  ने कालिदास की सभी रचनाएँ प्राप्त कर ली हैं और  पढ़ भी ली हैं। अब कालिदास को मातृगुप्त के नाम से जाना जाता है अत: मल्लिका  का 'कालिदास संबोधन उसे आपत्तिजनक लगता है। वह मल्लिका  के घर का परिसंस्कार करना चाहती है और उसकी इच्छा है कि मल्लिका  किसी राजकर्मचारी से विवाह कर ले, उसके साथ उसकी संगिनी बन कर रहे। वहाँ की वनस्पतियों, पत्थरों, कुछ पशु-पक्षियों ओर कुछ गरीब बच्चों को अपने साथ ले जाना चाहती है जिससे कालिदास को राजसुख में रहते हुए भी कभी अपने परिवेश का वियोग न खटके मल्लिका घर के परिसंस्कार और विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। प्रियगुमंजरी का वियोग न खटके। मल्लिका  घर के परिसंस्कार और विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है। प्रियगुमंजरी हतप्रभ सी होकर वहाँ से चली जाती है। उसके जाने के बाद विलोम भी आता है। इस सारे घटनाचक्र से वह भी परिचित है। वह इस आशा से वहाँ आता है कि कालिदास यदि वहाँ आये तो वह उसकी वास्तविकता, उसके व्यक्तित्व में आये परिवर्तन को सबके सम्मुख उजागर कर दे। यद्‌यपि वह जानता है कि कालिदास वहाँ नहीं आएगा। कालिदास के मल्लिका  से बिना मिले चले जाने से अंबिका और विलोम-दोनों की आशंकाएँ सत्य सिद्‌ध होती हैं।

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शब्दार्थ

 

टाकियाँ – पैबंद

रंगशाला – नाट्‌यशाला

राज-दुहिता – राजकन्या

प्रणय-गीत – प्रेम का गीत

हतप्रभ – हैरान, आश्चर्य

प्रणेता – रचियता

राजनीत-निष्णात – राजनीति में कुशल

राजमहिषी – रानी

उपवेश-गृह – बैठक

गवाक्ष –खिड़की, झरोखा

चाटुकारिता – चापलूसी

कुलीनता – आभिजात्य , श्रेष्ठ कुल का

योजन – दूरी का माप (आठ मील)

विदग्धतापूर्ण – ईर्ष्यापूर्ण

आत्मविस्मृत होना – अपने को भूल जाना

आयास – प्रयत्न , श्रम

क्रीड़ा-शैल – खेल का पहाड़

परिसंस्कार – नवीनीकरण, सुधार

श्लक्षण – चिकनी

स्थपति – वास्तुकार, शिल्पी

क्षुब्ध – दुखी

क्षुद्र – नीच

वैचित्र्य – विचित्रता, अनोखापन

अयाचित – अप्रार्थित, बिना माँगा हुआ

आत्म-श्लाघा – आत्मप्रशंसा

स्पर्द्‌धा – प्रतियोगिता, मुकाबला

आवेश – जोश

भित्तियों – दीवार

अंक तीन

तीसरे अंक में कुछ और वर्षों  के बाद की घटनाएँ हैं। परदा उठने पर वर्षा और मेघ-गर्जन की आवाज़ आती है। वही प्रकोष्ठ (कमरा) जहाँ एक दीपक जल रहा है। प्रकोष्ठ की हालत बिल्कुल जर्जर और अस्त-व्यस्त हो चुकी है। अब वहाँ केवल एक ही कुंभ (घड़ा) है और वह भी टूटी-फूटी अवस्था में है। दीवारों पर से स्वस्तिक, शंख आदि के चिह्‌न मिट चुके हैं। चूल्हे के पास सिर्फ दो-एक बरतन शेष हैं। इस बार अंबिका दिखाई नहीं देती। वहाँ पालने में लेटा एक शिशु जो मल्लिका के अभाव की संतान है। घर की अस्त-व्यस्त और जीर्ण-शीर्ण स्थिति मल्लिका के दुखों की कहानी कह रहे हैं। इस बार फिर आषाढ़ का पहला दिन है पहले की भाँति इस बार भी मूसलाधार वर्षा हो रही है। परंतु इस मल्लिका वर्षा का आनंद उठाने की स्थिति में नहीं है। मातुल भीगता हुआ आता है। जिस वैभव और सत्ता-सुख की लालसा से वह उज्जयिनी गया था, वह लालसा तो पूरी हुई किंतु उस सबसे मातुल का मोह भी भंग हुआ है। मातुल को चिकने शिलाखंडों से बने प्रासाद,  आगे-पीछे चलते प्रतिहारी,  कालिदास का संबंधी होने के नाते अकारण मिलने वाला सम्मान शुरू में तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन धीरे-धीरे इस सबसे वह ऊबने लगता है। वह मल्लिका को सूचना देता है कि कालिदास ने काश्मीर के शासन की जिम्मेदारी त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया है। मातुल के चले जाने के पश्चात इसी अंक में कालिदास का प्रवेश होता है। प्रथम अंक में जिस तेजस्वी कालिदास के दर्शन होते हैं और दूसरे अंक में जिसकी प्रतिभा, योग्यता और यश की चर्चा होती है। वही कालिदास इस तीसरे अंक में  भग्नहृदय और विवश दिखाई देते हैं। इस अंक में कालिदास का लंबा आत्मवक्तव्य है। वह बताता है कि यहाँ से जाने के बाद वह सुख-सुविधाओं आमोद-प्रमोद, साहित्य-सृजन में व्यस्त भले ही रहा हो परंतु कभी भी अपने ग्रामप्रांतर और मल्लिका से अलग नहीं हुआ। अपने पुराने अनुभवों को ही वह बार-बार अनेक रूपों में पुन: सृजित करता रहा है। उसकी मौलिकता धीरे-धीरे समाप्त होने लगी। जिन लोगों ने सदा उसका तिरस्कार किया था, उपहास किया था उनसे प्रतिशोध लेने की कामना से ही उसने काश्मीर के शासन की जिम्मेदारी संभाली। परंतु अब वह इस कृतिम जीवन से थक चुका है। अत: शासक मातृगुप्त के कलेवर से संन्यास लेकर वह पुन: कालिदास के कलेवर में लौट आया है। अब वह यहीं इस पर्वत प्रदेश में ही रहना चाहता है, मल्लिका के साथ अपने जीवन को पुन: आरंभ करना चाहता है। इस बातचीत के बीच-बीच में द्‌वार पर दस्तक होती रहती है परंतु मल्लिका द्‌वार नहीं खोलती। इस वक्तव्य के दौरान उसे एक बार भी यह विचार नहीं आता कि उसके उज्जयिनी जाने और वहाँ से वापिस आने की दीर्घ अवधि में मल्लिका को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। सहसा अंदर बच्ची के रोने की आवाज और विलोम के प्रवेश से उसे वास्तविकता का ज्ञान होता है। अब उसे अनुभव होता है कि इच्छा और समय के द्वंद्व में समय अधिक शक्तिशाली सिद्‌ध होता है और समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। कालिदास एक बार फिर मल्लिका को छोड़कर वहाँ से चला जाता है और यहीं नाटक समाप्त हो जाता है।

शब्दार्थ 

जर्जर – जीर्ण-शीर्ण, टूटी-फूटी अवस्था में

प्रतिहारी – पहरेदार

धारासार बरसने वाला – मूसलाधार वर्षा होने लगी

अप्रतिभ – आश्चर्यचकित

सहवास – साथ में रहना

उद्विग्न – बेचैन

वारांगणा – वेश्या

भर्त्सना – निन्दा, बुराई

अयाचित – जिसकी कामना न की गई हो

उपत्यका – घाटी

विन्यास – बनावट

उपक्रम – इंतज़ाम

अष्टावक्र – उपनिषद साहित्य में चर्चित एक ऋषि

शास्वत – हमेशा रहने वाला

आहत – घायल

वंचित – धोखा खाया हुआ

सालती – कष्ट देना

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